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इस बस्ती में / नीलाभ
Kavita Kosh से
ख़्वाब भी अब नहीं आते इस बस्ती में
आते हैं तो बुरे ही आते हैं
सोने को जाता हूँ मैं घबराहट में
आँख मूँदने में भी लगता है डर
जाने कैसी दीमकों की बाँबी बनी है मस्ती में
हवा हो गए हैं नीले शफ़्फ़ाफ़ दिन,
लो देखो, गद्दियों पर आ बैठे वही हत्यारे,
इस बार तो नक़ाबें भी नहीं है उनके चेहरों पर ।
ज़िन्दगी मँहगी होती जाती है, मौत सस्ती,
मरना अब एक मामूली-सी लाचारी है
अक्सर दिन में कई-कई बार पड़ता है मरना।