Last modified on 22 फ़रवरी 2012, at 13:20

इस मन का अपराध यही है / नागेश पांडेय ‘संजय’

इस मन का अपराध यही है,
यह मन अति निश्छल है साथी ।



अपने जैसा समझ जगत को
मैंने हँसकर गले लगाया,
मगर जगत के दोहरेपन ने
साथी! मुझको बहुत रुलाया।


इस मन का अपराध यही है,
यह मन अति विह्वल है साथी ।


लाख सहे दुःख लेकिन जग को
मैंने सौ-सौ सुख बाँटे हैं।
सब के पथ पर फूल बिछाए
अपने हाथ लगे काँटे हैं।


इस मन का अपराध यही है,
यह मन अति कोमल है साथी।


जिसने सबको छाया बाँटी
उसके हिस्से धूप चढ़ी है।
सबके कल्मष धोने वाले
की इस जग में किसे पड़ी है ?
इस मन का अपराध यही है,
यह मन गंगाजल है साथी।


संतापों की भट्ठी में यह
तपकर कुंदन सा निखरा है।
जितनी झंझाएँ झेली हैं,
उतना ही सौरभ बिखरा है।


इस मन का अपराध यही है,
यह मन बहुत सबल है साथी !