याक की तरह सर्दी खुर बजा रही है
जिनके जिस्म ओढ़े नहीं जा सकते
वो मिट्टी ओढ़ रहे हैं
ग्लैशियर-सी रात फिसलती हुई बह रही है
हिंसा है इन रातों की नींद हिंसा है
दुख आँच देकर जल रहा है दान का अलाव
साँसों से हथेलियाँ गर्मा रही है रूह
पत्तों पर ठोस हवा ठहरी है
सूखी हुई लकड़ियाँ सब हरी हैं
यह रात जैसे हड़ताल में अस्पताल
इस महादेश में मौसम भी एक बीमारी है
देह तानकर ओढ़ रहे हैं लोग
इस ठण्डे की आग लगे यह रोग ।