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इस सोच में ही मरहला-ए-शब गुज़र गया / शहराम सर्मदी
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इस सोच में ही मरहला-ए-शब गुज़र गया
दर वा किया तो किस लिए साया बिखर गया
ता-देर अपने साथ रहा मैं ज़माने बाद
बेनाम सा सुकूत था जब रात घर गया
रखता था हुक्म मौत का जो राह-ए-वस्ल में
वो लम्हा-ए-फ़िराक़ मिरे डर से मर गया
सब रौनक़ें ब-ज़िद थीं जहाँ घर बनाने को
वो क़र्या-ए-वजूद ख़लाओं से भर गया
मैं बाँध ही रहा था ग़ज़ल में उसे अभी
वो ज़ीना-ए-ख़याल से नीचे उतर गया