ईद मुबारक / विनोद दास
ऐसी है ईद
कि नहीं जानता
कहाँ चखूँगा सेवइयाँ
कहूँगा किसे ईद मुबारक
हलक़ में घुमड़ रहा है
और जिनसे मुझे कहना है
चले गए हैं
बहुत दूर
कुछ हैं तो ऐसे
जैसे शोक में शब्द
भरोसे की चिथड़ा कमीज़ से
ढँके रहते हैं
अपनी ज़िल्लत
अपने जख़्म
अपना डर
अपनी बेचैनी
भीतर चुभती रहती है हरदम
नफ़रत की कील
मगर ऑक्सीजन की तरह
मनुष्यता की आवाज़ इतनी कम हो गई है
किसी को उनकी कराह भी सुनाई नहीं देती
इस दुश्वार समय में
छिपाए रखते हैं
अपना नाम
अपना माज़ी
अपनी मीठी ज़ुबान
यह अनायास नहीं है
कि हिन्दुस्तानी बोलते-बोलते
उनकी ज़बान पर
राष्ट्रीय हिन्दी उतर आती है
कहीं भी होता है फ़साद
गिरती है छत
टूटता है रेलपुल
हलफ़ लेकर चीख़ते हैं
मैं हूँ हिन्दुस्तानी
हां हिन्दुस्तानी
ईद की नमाज अता हो चुकी है
बच्चे चहचहा रहे हैं
इठलाकर ले रहे हैं ईदी
अदृश्य सलाख़ों के बीच
हवा में उड़ रही हैं आवाज़
ईद मुबारक ईद मुबारक
ईद मुबारक
जहाँ बधाई कम
अनकहा दुख ज़्यादा है ।