ईमानदार आदमी ने / प्रज्ञा रावत
ईमानदार आदमी ने कभी
ढूँढ़ा नहीं किसी का साथ
ईमानदारी अपनी निर्मलता के साथ
रहती है एकदम अकेली
जहाँ है बेईमानी अनाचार
देखो कितने डरे पिटे-पिटे से
विचरते झुण्डों में करते हुए क़िलाबन्दी
कतरते हैं दूसरों के पंख
ईमानदारी फिर-फिर उठ खड़ी होती है
बूँद-बूँद सँजोए ख़ुद को
कितना बोझिल-सा लगने लगा है
आदिमकाल से चले आ रहे ईमानदारी के
इस परम सच का बार-बार कहना-सुनना
सफलता और असफल के पैमानों के बीच
अपने जीवन के प्रश्नों का उत्तर खोजते
इस महादौर में नीति की ये बातें
किसी पाठ का हिस्सा नहीं अब
अब जबकि शब्दों के इतने कुरूप और बेस्वाद
हो चुके अर्थों का शोकगीत गा रही हो भाषा
तब किस भाषा में अपने बच्चों को
पढ़ाऊँ जीवन के ज़रूरी पाठ
यह सोचते-सोचते अचानक
नज़र उस आदमी पर ठहर गई
जो किसी अटल चट्टान की तरह
खड़ा रहा जीवन के उतार-चढ़ावों में
नहीं छोड़ा तो बस एक विश्वास कि
भले ही मान लिया गया हो
इन बातों को बोझिल-बेस्वाद
पर सच तो है यही कि
ईमानदारी निहत्थी ही सुन्दर लगती है
और अपनी, अपनी क्या कहूँ
मैं इस विश्वास के सामने नतमस्तक हो गई।