भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ईश्वर को याद करता एक बूढ़ा / रमेश ऋतंभर
Kavita Kosh से
पिता काली चट्टान थे
जो विपत्तियों में भी नहीं टूटे थे कभी
जो हमे चिन्तित देख कह उठते थे
बेटा! जब तक मैं जिन्दा हूँ,
तुम्हारी ख़ुशी के लिए
अपनी देह की सारी हड्डियाँ गला दूँगा
तुम आश्वस्त रहना
लेकिन बहनों के हाथ पीले करते-करते
वह जगह-जगह से दरक गये
और उनके भीतर फूट आयीं सहसा
ढेर-सारी झुर्रियाँ
जो एक पूरी उम्र गुजार देने के बाद भी
नहीं फूटी थी उनमें।
पिता काले खरगोश थे
जिनके अन्दर हमेशा ठाठे मारा करता था
एक हँसता-खेलता बच्चा
जो उदासी के दिनों में बदल जाता था
ईश्वर को याद करते हुए
एक भोले-भाले बूढ़े में
जो अपने दुःख भरे दिनों को
यह कहते हुए गुजार देता-
'प्रभु तेरी माया, कहीं धूप, कहीं छाया।'