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ई जिंदगी के मजा जीत में न, हार में हे / मृत्युंजय मिश्र 'करूणेश'

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ई जिंदगी के मजा जीत में न, हार में हे;
कि जे उजाड़ में मस्ती, न ऊ बहार में हे।

चुभल जे नोंख तऽ लेहुआ-लेहान हो गेली;
ऊ रंग गुल में कहाँ हे जे रंग खार में हे।

दऽ नाउ खोल कि किनछार रह के का करबऽ?
भँवर के देख लऽ हलचल जे बीच धार में हे।

हहर के कट रहल पहर हे आसरे केकरो;
तड़प मिलन में कहाँ ई, जे इंतजार में हे।

दरद से ऊभ-चूभ दिल के तार-तार बजल;
सधल ऊ सुर तो न दूसर कोनों सितार में हे।

जहर के जाम में जादू जे सिर चढ़ल अइसन,
उतर रहल न कि अमरित एकर उतार में हे।

जो जाय रम ई मन तो गम भी कुछ न कम रसगर;
लकीर टेंढ़ न केकरो उगल लिलार में हे।

मन छनेछन ई सेरा जाहे, गरम हो जाहे;
टाँठ तुरते में कि तुरते में नरम हो जाहे।

आदमी काहे तो पड़ जाहे धरम संकट में
आउर संकट से उबरना भी धरम हो जाहे।

डीठ अइसन न गड़ाके तूँ भिआरऽ हमरा;
जान-पहचान हे, तइयो तो सरम हो जाहे।

बून-बदरी आ कुहासा में सुरुज हे उपहल;
दिन के देखऽ ही तऽ रतिया के भरम हो जाहे।

जाड़ा-पाला में जो एकबेग दगा दे रउदा;
लाज रक्खे के तऽ बोरसी के धरम हो जा हे।

ई उमरिया के तो ओलहल हे जनम कुंडली में;
ई उमरिया में जे बाकी हे करम हो जाहे।

दिल के का हाल, न दिलदार समझलक अबतक;
चोट अइसन हे कि चोटगर ई मरम हो जाहे