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उक्ति-प्रत्युक्ति / प्रतिपदा / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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कृषक-

”आषाढ़क रिमझिममे रोपी अगहन अन्न ओसाबी आबि
भूमि-पुत्र छी हमहुँ, सफल अछि खेत, गीत खरिहानक गाबि
तोँ निष्फल की घाम चुआबह बैशाखक लुत्तीमे दग्ध
रोपह तेहन बीज जाहिसँ नहि होइछ उदर-भरण किछु लब्ध
मरह गन्धपर कल्पनाक बल आलवाल घामेँ भरि नित्य
‘फूल सूंघि नहि भूख मेटाइछ’ कहबी तोहरहिमे अछि सत्य।“

मालि-

”मित्र! सत्य थिक अहँक कथा, नहि उपजत हमर नन्दनक वन
क्षुधा न मेटत जगतक, कणसँ करत न खरिहानक छवि घन
रूप-पिपासित तरुण प्रेयसी-वेणी-गुम्फन हेतु तकैत
व्रती उपोषित अर्चनाक हित प्रतिमा-पदकेँ जखन पुजैत
सुमन-सुमन कय चयन नयन भरि जुड़त हमर उपवनमे आबि
हमर साधना एतबे हेतुक भुक्ति-मुक्तिमे संगति लाबि।।“

सागर -

”देखह विभव अनन्त जलक ई दूर क्षितिज धरि पसरि रहल
की कलकल करइत बहइत छह? मिलबह पलहि बीच अविचल
वक्ष बिहारी पोत, भरल, जत वणिजक होइछ यातायात
तोँ हमरहि उत्तुंग तरंगक अंग समैबह एकहि कात।।“

नदी-

”सत्य, महत्ता लवणाकर! अछि अहँक प्रभाव सुदूर दिगन्त
नद निर्झर झरि अहिंक चरण नत, रत्नाकर! छी अगम अतन्त!!
किन्तु पोत चढ़ि प्यासेँ आकुल आरोहीक कण्ठमे बिन्दु-
हमरहि, मेटि पिआस करत लघु अहँक महत्ताकेँ हे सिन्धु!!“

सुवर्ण -

चमकि सुवर्ण लौह सँ कहलनि - ”पिण्डश्याम छवि तोहर असभ्य
देखह, हमर विनिमयेँ जगकेँ कोनहुँ वस्तु ने कतहु अलभ्य।“

लौह -
ठक ठक करइत नतमुख लोहक मुहसँ एतबे उत्तर भेल
”तोँ तखनहि आभूषण बनबह चरण-चोट जखने सिर लेल।“

फल ओ फूल-

फल झुलइत शाखा पर बजला ‘फूल! गन्ध नहि उदर भरत।’
हँसि कहलनि ओ ‘तोहर जन्महित हमरा पूर्वहिँ झ़य पड़त।।’

खरिहान ओ खेत-
भरल-पुरल खरिहान खिलखिला’ उठला कटला खेतक दीस।
कहल खेत--तोँ कतय न जौँ हम तोरा लेल कटवितहुँ सीस

गिरि ओ रज-
गर्वोन्नत गिरि घृणा भरल मुह फेरल सिकता - कणक उपर।
हँसि पड़ला रज निहुरि, ‘अरे! हम तोहरहि शृंगक शिखा-शिखर!’

 गगन ओ भूतल-

गगन दूर सँ घन गर्जन कय कहलनि - ‘हमही दै छी पानि!’
भूतल उत्तर देल - ‘भाफ सँ हमरहि भने बनै छह दानि!!’

 रज्जु ओ तृण -

रज्जु गजक गति रोकि तृणक दिस गर्वे ताकल शक्तिक लेल।
‘हमर संहतिक फल ई जानह’ तृणक सहज उत्तर ई भेल।।