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उखड़न / कुमार वीरेन्द्र

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गाँव के एक छोर पर उनका टोला था
वे गाँव में, हर कहीं, नहीं रह सकते थे

गाँव में हर कहीं आ-जा
सकते थे, राह के बीचोबीच चल नहीं सकते थे
किनारे चलते, जो गाँव में हर कहीं रहनेवाले, उनको आते देख, और किनारे हो जाते; वे हिन्दू थे
ऐसे हिन्दू, अपने टोले के लोगों को छोड़ किसी और से आँख नहीं मिला सकते थे; वे जब किसी
दुआर पर जाते, दस हाथ दूर खड़े रहते; ज़मीन पर बैठ सकते थे, खाट-चौकी पर
बैठे कभी नहीं दिखते; उनके हल चलाने, बुआई करने, फ़सल काटने
में छूत नहीं थी; वे खैनी माँग सकते थे न खिला सकते
थे; खेत-खलिहान से अलग, पगड़ी बाँधे
घूम भी नहीं सकते थे

उनके बच्चे सज-धज के क्या, बाल भी नहीं बना सकते थे
हालाँकि, उनकी बीवियाँ-बेटियाँ, हर सिंगार कर सकती थीं

लेकिन वे रोज़ नहीं, किसी
ख़ास मौक़े पर करतीं, तब भी घात से बच नहीं पातीं
यह कोई जानकर भी कुछ नहीं कर पाता था; एक बार एक ने घाती का गर्दन हँसुआ से उतार देने की
जुर्रत क्या की, बधार में पेट फाड़, अँतड़ी निकाल, नदी में बहवा दी गई, तब भी उसका मरद, घाती के
आगे ही हाथ जोड़े रहा, अपनी बीवी पर ही हज़ार लांक्षन लगाते गरियाता रहा; गाँव में
उनके लिए कोई पंचायत नहीं बैठती, कोई भी कहीं भी हुक्म सुना सकता
था; यह भी कि उसके खेत में शौच नहीं करना, करने पर
लउर कोंच दी जाएगी; और हुक्म के ख़िलाफ़
जो, उसके ख़िलाफ़ पूरा गाँव; वे
हिन्दू थे और जाने

कैसे हिन्दू थे, मलिकारों के बच्चों के आगे भी सर झुकाते थे
ब्राह्मणों को ईश्वर मानते, परछाईं बीघे-भर, दूर रखना चाहते

ताकि उनको दोबारा जल
से शुद्ध न होना पड़े; बनिये उनसे इतना अलगाव नहीं
रखते थे, पैसे-अनाज ले सामान सहज ही दे देते; उधार नहीं ले सकते थे, उन पर कोई भरोसा ही नहीं
करता था, भरोसा तब किया जाता, जब वे जिसके बंधुआ, वह कहता देने के लिए; जिस नाव से लोग
नदी पार करते, उस नाव से वे भी पार कर सकते थे, लेकिन तब जब गाँव में हर कहीं
रहनेवाले न बैठे हों; वे कोई संकट हो तब भी क़स्बे पैदल ही आते-जाते
दिखते, जबकि टमटम ख़ूब चला करते थे, जिन्हें गाँव के
दो-चार घरवाले मुसलमान ही ज़्यादा चलाते थे
वे मुसलमानों से भी नीचे थे; थे तो
हिन्दू ही लेकिन ऐसे

जिनके दु:ख में पूरा गाँव शामिल नहीं होता था, उनके मालिक दो
दिन चुप रहते, लेकिन जल्दी ही, काम पर, बुला लेते; वे चले आते

उन्हें मना करते कभी नहीं
देखा, देखा भी तो मना करने पर मार-मार गतान करते
तमाशा देखते लोगों को; वे अपने दु:खों को ही नहीं, अपनी हँसी-ख़ुशी को भी, अपने टोले से बाहर सबसे
साझा नहीं कर सकते थे; उनके चेहरे दिन क्या रात में भी भले बरते दिखते, लेकिन उन्हें ठहाके लगाते तो
कभी नहीं सुना जा सकता था; सोचता ऐसे क्यों हैं ये, और सोचता ही रह जाता; देखता
जिस कुँए से सब पानी पीते, वहाँ से वे प्यासे ही गुज़र जाते, नदी जाकर
पीते पानी, लेकिन उस घाट पर जहाँ मुरघटिया; वे हिन्दू थे
लेकिन जाने कैसे हिन्दू थे, जिनके लिए धरती
पर बस अपना एक टोला था, वह
भी दूर एक कोन पर

कोई खेत, बधार, बगीचा नहीं, इसलिए एक टिकोरा क्या दातून
भी तोड़ने से डरते थे; वे ग़ैर थे, समझ में नहीं आता, कैसे ग़ैर थे

कि उनकी ही औरतें नार
काटने को बुलाई जातीं, उनके छूने से मालिकों के चराग़
अछूत क्यों नहीं होते थे, कैसे ग़ैर थे कि अपनी बीवियों संग कई दिन ढोलक बजाते नाचते-गाते, गूँज से
भर देते हर दिशा; और उन्हीं की तरह, वे भी जाने कैसे ग़ैर थे, जिनकी औरतें घर के कपड़े धोने के लिए
ले जातीं, साल में एक बार अनाज माँगने आतीं, उनके गदहे खेत में तनि चर क्या जाते
गदहों की तरह मार पड़ती; और वे जिनके सूअर, तनि गुज़र क्या जाते रात
डीह में उगे तेलहन से, घर ही में उनकी औरतें रौंद दी जातीं
और बात, उनके मरद महुआ का दारू पी जब
तब खुलेआम नाम ले लेते, हमरी
वाली संग फलाँ ने...

हालाँकि सुबेर होते, गोड़ पर गिर, माफ़ी माँग लेते; वे हिन्दू थे
जाने कैसे हिन्दू थे, मन्दिर की चारदीवारी से भी दूर खड़े होते

रामनवमी की पूजा देखने
परसाद की आस में; जैसे आस में मलिकारों के किसी
काज-परोजन में खाने को कबसे खड़े, टुकुर-टुकुर ताकते बच्चों संग; अपने उन बच्चों संग जो कभी
स्कूल नहीं जाते थे, कुछ जाते भी तो एकदम पीछे बैठते, एक मामूली ग़लती पर भी इतनी मार खाते
स्कूल आना धीरे-धीरे बंद कर देते; अपने पिताओं के कामों में हाथ बँटाते दिखते, मरे
जानवरों की चाम छीलते सीखते दिखते; वे हिन्दू थे, कैसे हिन्दू थे, सुनता
एक मालिक को एक बार जाने किस कारण मानुस-बलि की
ज़रूरत पड़ी, उनके एक बच्चे की दे दी गई
माँ-बाप कुछ ही दिनों में हुक से
मर गए; वे हिन्दू थे

हिन्दुओं के एक बड़े गाँव के, एक कोन पर, रहनेवाले
हिन्दू थे; जो ख़ुद नहीं आए थे, बुलाकर, बसाए गए थे

बसाए गए थे ‘परजा
पवनी’ के नाम पर, बसे रहने के लिए, मनुष्य
होने के नाते हर हक़ हासिल करने को; लेकिन वे ऐसे हिन्दू थे, जो हिन्दू होकर भी, हिन्दुओं के गाँव
में मुसलमानों से ज़्यादा असुरक्षित थे; थाना-कचहरी उनकी ख़ातिर नहीं थे, वे एक लोकतन्त्र के ऐसे
नागरिक थे, जिन्हें भोट देने का मतलब था अपने हाथ कटवा लेना, आँखें फोड़वा
लेना; वे हिन्दू थे और हिन्दुओं का ही गाँव छोड़कर जाने को विवश
थे; गाँव का एक टोला जो कभी मधुमक्खियों के खोते
समान घना हुआ करता था, धीरे-धीरे छेंहर
होते, उजड़ने लगा; एक दिन
आजी से पूछा

"ऊ जो काका-काकी, भइया-भौजी, सुकवा
सोमारू थे, ऊ कहँवा गए, लउकते नाहीं..."

आजी ने कहा
"चिरईं-चुरुँग थे, कब तक ठहरते
उड़ के चले गए अपने बन में..."; बाबा से पूछा, कवन तो सोच में पड़ गए
जब कहा, "आजी कहती है, उड़ के बन में चले गए, ऊ, अब नाहीं आवेंगे"
बाबा ने कहा, "ठीके कहती है तोहरी आजी, बेटा; कब तक
ठहरते, उड़ के बन में चले गए कि अपने मन
से चर सकें धरती पर, उड़
सकें अपने मन
से, आसमान में...!"