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उगने की प्रतीक्षा / कविता भट्ट
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आओ मुझे दिग्भ्रमित करो तब तक;
निरंकुश! तुम्हारा जी न भरे जब तक।
देखूँ- दानव जीतता है तुम्हारे भीतर का,
या मुस्काता उन्मुक्त देवत्व मेरे भीतर का।
मौत से अधिक कुछ नहीं, नियति तौलेगी,
अभी मौन है घड़ी, कभी मेरी बात बोलेगी।
मेरे पक्ष में नारा देगा क्रूर समय पिघलकर,
और हाँ गिड़गिड़ाएगा विविध रूप धर कर।
एकटक कालगति देखो और समीक्षा करो,
डूबा सूरज; मेरे साथ उगने की प्रतीक्षा करो।
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