उग आया वटवृक्ष / सुरेन्द्र स्निग्ध
हाँ, आज अलस्सुबह
हमारे गाँव के पूर्वी सिवान पर
उग आया वटवृक्ष
उसने देखा —
धरती के रोमाँचक पूर्वाभास की तरह
जुतकर मुस्तैद थे हमारे खेत
उसके पत्ते-पत्ते बज उठे
गन्धवाही मिट्टी के सौंधे स्वागत-गान
बस ! तभी
कालजयी वटवृक्ष यह
होता जा रहा है
लगातार
विराऽऽट
इसके तने
फैल रहे हैं
उत्तर से दक्षिण
और पूरब से पच्छिम
समेट रहा है
सारी पृथ्वी
सद्यःप्रसूता माँ के अँकवार की तरह
अदम्य स्नेहिल
अपने
गठीले तने के असीम प्रसार में
भर रहा है
पिता की तरह
वत्सल गोद में
मचलता हुआ नवजात संसार
जड़ें
बँटी हुई मूँज की रस्सी की तरह मज़बूत
फैल रही हैं
शाखाओं से मिट्टी तक
हमारे
तुम्हारे
सबके
खेत की मिट्टी तक
गहरी.... गहरी....औऽऽर गहरी
बाँट रही हैं
सम्पूर्ण मानवजाति को
जीवन-रस के ज्वार से उफनती
ज्वलन्त शिराएँ
जड़ें
धरती पर हल की लीकों से
बँटी हुई रस्सी-सी कर्मठ
फैल रही हैं
मिट्टी से शाखों तक
बना रही हैं
अतिकाय आधार-स्तम्भ
जिस पर शताब्दियों पार
खम ठोक टिका रहेगा
इस कालजयी वृक्ष का उदात्त श्रमिक
मृत्यु की शक्तियों के विरुद्ध
पृथ्वी की जीवन-शक्ति से सशस्त्र
फैल रही है
इस चिरयुवा श्रमिक के हथियार की धार
कौंध रही है
उत्तर से दक्षिण
पूरब से पच्छिम
अछोरता का मान-मर्दन करती
तन गई है
ऊपर आकाश की ओर
....नहीं, नहीं
हर्गिज़ नहीं
उतर नहीं सकता
फिर कभी
धरती पर लोलुप
निशाचर अन्धकार
....शाखाओं से फूटे
जीवन के प्रकाश की तरह
पँछी
फैला रहे हैं
कालेपन के ख़िलाफ़
धरती के वरदान की तरह
वटवृक्ष की युद्ध-घोषणा
और अब
उसके स्वागत के लिए
हमारे खेतों के हर मेंड़ पर
लामबन्द हो रहे हैं
सँग्रामी जीवन के प्रयाण-गीत ।