भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उघर रहा गणतंत्र / राहुल शिवाय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ठिठुर रहा गण
और ध्वजा बन फहर रहा गणतंत्र

दशक दर दशक केवल लहरे
उम्मीदों की थाती
मुश्किल कहना ताली पीटें
या हम पीटें छाती

देख न पाते
कैसे जन सँग कुहर रहा गणतंत्र

खुशहाली झलके परेड में
उत्सव बहुत जरूरी
मगर राजपथ से खेतों की
अब भी उतनी दूरी

कैसे मानूँ
अच्छा सबकुछ, सँवर रहा गणतंत्र

कुचले सपनों के स्वर मद्धम
धर्मों के जयकारे
एक दिवस की राष्ट्र-भावना
सौ दिन द्रोही नारे

रेशा-रेशा
धीरे-धीरे उघर रहा गणतंत्र