उजाले की दमित आकांक्षा / पद्म क्षेत्री
किसी आदिम भय के आकाश-तले खड़े हैं हम
और हमारे होठों पर है इस क्षण
अँधेरे की मौन प्रार्थना !
किंवदंती लगती है अब यह
कि उजाले के उपासक भी थे हम कभी,
कि अनगिनत शौर्य-गीत रचे थे हमने
सूर्य को ईष्ट मानकर !
अब उन गीतों की आवृति भी
अनिष्ट लगती है हमें
अमंगल लगती है हमें
सूर्य की कल्पना तक !
उजाले की हार में हम
जीवन का सार पाते हैं
अँधेरे की जीत पर हम
प्रशस्ति के गीत गाते हैं !
अब कभी न हो आगमन
प्रकाश-पर्व का हमारे आँगन में-
मन-ही-मन
दोहराया है हमने कई बार
तिमिर का सहस्त्र संकल्प,
उजाले का स्त्रोत पढ़ने वालों से
भयभीत होकर
अपनी-अपनी क्लीवता की खोह-खंदकों में
दुबके पड़े हैं हम,
लगातार !
किस बिन्दु से हुयी
अन्धकार के प्रति हमारी इस अनुरक्ति की शुरुआत
अनभिज्ञ हैं हम
और भी कितने पहाड़ चढ़ने हैं
उतरनी है कितनी घाटियाँ
कितनी नदियाँ पार करनी है अँधेरे की
मालूम नहीं है हमें !
परास्त हैं हम
अपनी-अपनी कायरता के अक्षौहिणी सैन्य से
और मूर्छित हैं हमारे अभ्यंतर में कहीं
उजाले की दमित आकांक्षा !
किसी आदिम भय के आकाश तले खड़े हैं हम
यातना-पर्व जैसे अन्धकार को
रक्षा- कवच मानकर !
फिर भी-
संदेह सा एक विशवास अब भी बाकी है
हमारे भीतर किसी अज्ञात अंत:लोक में
कि जाएगा निश्चय एक दिन
हमारे भीतर मूर्छित प्रमथ्यु ,
कि अटल नियति नहीं है हमारी
यह गहनतम, अविजित अन्धकार !