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उठाए संग खड़े हैं सभी समर के लिए / आलम खुर्शीद
Kavita Kosh से
हथेली की लकीरों में इशारा और है कोई
मगर मेरे तअक़्क़ुब<ref>पीछे जाना, पीछा करना</ref> में सितारा और है कोई
किसी साहिल<ref>किनारा</ref> पे जाऊं एक ही आवाज़ आती है
तुझे रुकना जहाँ है वो किनारा और है कोई
न गुंबद इस इमारत का न फाटक उस हवेली का
कबूतर ढूँढता है जो मिनारा और है कोई
तमाज़त<ref>धूप की गर्मी</ref> है वही बाक़ी अगरचे अब्र<ref>बादल</ref> भी बरसे
हमारी राख में शायद शरारा<ref>चिंगारी</ref> और है कोई
अभी तक तो वही शिद्दत हवाओं के जुनूँ में है
अभी तक झील में शायद शिकारा और है कोई
मैं बाहर के मनाज़िर<ref>मंज़र का बहुवचन, दृश्य समूह</ref> से अलग हूँ इसलिए 'आलम'
मेरे अंदर की दुनिया में नज़ारा और है कोई
शब्दार्थ
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