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उठी जब हूक कोई मौसमों की आवाजाही से / गौतम राजरिशी
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उठी जब हूक कोई मौसमों की आवाजाही से
तेरी तस्वीर बन जाती है यादों की सियाही से
कि होती जीत सच की बात ये अब तो पुरानी है
दिखे है रोज़ सर इसका कटा झूठी गवाही से
नहीं दरकार ऐ साहिल तुम्हारी मेहरबानी की
बुझाता प्यास हूँ दरिया की मैं अपने सुराही से
किया है जुगनुओं ने काम कुछ आसान यूँ मेरा
बुनूँ मैं चांद का पल्ला सितारों की उगाही से
जिबह होता है हिस्सा उम्र का इक, रोज़ ही मेरा
ज़रा मुस्काये सूरज सुब्ह को जब बेगुनाही से
अजब आलम हुआ जब मौत आई देखने मुझको
दिखा तब देखना उनका झरोखे राजशाही से
घड़ी तुमको सुलाती है घड़ी के साथ जगते हो
ज़रा सी नींद क्या है चीज़ पूछो इक सिपाही से
(कथादेश, मार्च 2011)