भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उठो ये मंज़रे-शब ताब देखने के लिए / इरफ़ान सिद्दीकी
Kavita Kosh से
उठो ये मंज़रे-शब ताब देखने के लिए
कि नींद शर्त नहीं ख्वाब देखने के लिए
अजब हरीफ़ था मेरे ही साथ डूब गया
मेरे सफ़ीने को ग़र्क़ाब देखने के लिए
वो मर्हला है कि अब सैले-खूं पे राज़ी हैं
हम इस ज़मीन को शादाब देखने के लिए
जो हो सके तो ज़रा शह सवार लौट के आएँ
पयादगां को ज़फ़रयाब देखने के लिए
कहाँ है तू कि यहाँ जल रहे हैं सदियों से
चरागे-दीदा-ओ-मेहराब देखने के लिए