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उड़ानें / आलोक धन्वा

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कवि मरते हैं
जैसे पक्षी मरते हैं
गोधूलि में ओझल होते हुए !

सिर्फ़ उड़ानें बची
रह जाती हैं

दुनिया में आते ही
क्यों हैं
जहाँ इन्तज़ार बहुत
और साथ कम

स्त्रियाँ जब पुकारती हैं
अपने बच्चों को
उनकी याद आती है !

क्या एक ऐसी
दुनिया आ रही है
जहाँ कवि और पक्षी
फिर आएँगे ही नहीं !