भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उड़ानों की हर इक सीमा गगन पे आ के रुकती है / भावना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उड़ानों की हर इक सीमा गगन पे आ के रुकती है
प्रथम सीढ़ी सफलता की सपन पे आ के रुकती है

यहां खरगोश को भी मात दे जाता है इक कछुआ
विजय की हर कसौटी तो लगन पे आ के रुकती है

बड़ी ही खोखली लगती वहां सम्मान की बातें
जहां औरत की चर्चा बदन पे आ के रुकती है

न ये जज्बात खो जाये कहीं वज्नों के मेले में
गजल की कामयाबी तो कहन पे आ के रुकती है

घरों में कैद रहते हैं उन्हें अहसास क्या होगा
नजर इन तितलियों की क्यूं चमन पे आ के रुकती है

न जाने कौन-सी मिट्टी खुदा ने दिल में है डाली
उगे हर ख्वाब की सीमा कफन पे आ के रुकती है