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उड़ा जा रहा प्रकृति पर रथ-विमान आकाश / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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उड़ा जा रहा प्रकृति पर रथ-विमान आकाश।
मानो हैं हय चल रहे, हरि-पग-तल-रथ-रास॥
दिव्य रत्नमणि-रचित अति द्युतिमय विमल विमान।
चिदानन्दघन सत्‌‌ सभी वस्तु-साज-सामान॥
अतुल मधुर सुन्दर परम रहे विराजित श्याम।
नव-नीरद-नीलाभ-वपु, मुनि-मन-हरण ललाम॥
पीत वसन, कटि किंकिणी, तन भूषण द्युति-धाम।
कण्ठ रत्नमणि, सौरभित सुमन-हार अभिराम॥

मोर-पिच्छ-मणिमय मुकुट, घन घुँघराले केश।
कर दर्पण-मुद्रा वरद विभु-विजयी वर वेश॥
शोभित कलित कपोल अति अधर मधुर मुसुकान।
पाते प्रेम-समाधि, जो करते नित यह ध्यान॥