उत्तर काण्ड / भाग 14 / रामचंद्रिका / केशवदास
अंगद हाथ गहै तरु जोई।
जात तहीं तिल सौं कटि सोई।।
पर्वत पुंज जिते उन मेले।
फूल के तूल लै बानन झेले।।274।।
बानन वेधि रही सब देही।
बानर ते जो भये अब सेही (स्याही नामक वन जंतु, शल्लकी)।।
भूतल ते सर मारि उड़ायो।
खेल के कंदुक कौ फल पायो।।275।।
सोहत हैं अब ऊरध ऐसे।
होत बटा नट को नम जैसे।।
जान कहूँ न इतै उत पावै।
गोबल चित्त दसौं दिसि धावै।।276।।
बोल घट्यो सो भयो सुरभंगी।
ह्वै गयौ अंग त्रिसंकु को संगी।।
हा रघुनायक हौं जन तेरो।
रच्छहु, गर्व गयो सब मेरो।।277।।
दीन सुनी जन की जब बानी।
जी करुना लव बानन आनी।।
छाँड़ि दियौ गिरि भूमि परîौई।
विह्वल ह्वै अति मानौ मरîौई।।278।।
विजय छंद
भैरव से भट भूरि भिरे बल खेत खड़े करतार करे कै।
भारे भिरे रणभूवर भूप न टारे टरे इस कोटि अरे कै।।
रोष सों खड्ग हने कुश केशव भूमि गिरे न टरेहु गरे कै।
राम बिलोकि कहैं रस अद्भुत खायें मरे नग नाग मरे कै।।279।।
दोधक छंद
वानर ऋच्छ जिते निशिचारी। सेन सबै इक बान सँहारी।
बान बिधे सब ही जब जोये। स्यंदन मैं रघुनंदन सोये।।280।।
गीतिका छंद
रन जोइ कै सब सीस भूषन संग्रहे जे भले भले।
हनुमंत कों अरु जामवंतहिं वाजि स्यौं ग्रसि लै चले।।
रन जीति कै लव साथ लै करि मातु के कुस पाँ परे।
सिर सूँघि कंठ लगाय आनन चूमि गोद दुवौ धरे।।281।।
सीता शोक
रूपमाला छंद
चीन्हि देवर कौ विभूषन कै हनुमंत।
पुत्र हौं विधवा करी, तुम कर्म कीन दुरंत।।
बाप कौ रन मारियो अरु पितृभ्रातृ संहारि।
आनियौ हनुमंत बाँधि न, आनियो मोहिं गारि।।282।।
(दोहा) माता, सब काकी करी विधवा एकहि बार।
मो सी और न पापिनी, जाये वंशकुठार।।283।।
दोधक छंद
पाप कहाँ हति बापहिं जैहौ।
लोक चतुर्दश ठौर न पैहौ।।
राजकुमार कहै नहिं कोऊ।
जारज जाइ कहावहु दोऊ।।284।।
कुश- मो कहँ दोष कहा सुनु माता।
बाँधि लियो जो सुन्यो उन भ्राता।।
हौं तुमहीं तैहि बार पठायौ।
राम पिता कब मोहिं सुनायौ।।285।।
(दोहा) मोहि विलोक विलोकि कै, रथ पर पौढ़े राम।
जीवन छोड़यो युद्ध में, माता कर विश्राम।।286।।
सुंदरी छंद
आइ गये तबहीं मुनिनायक।
श्री रघुनंदन के गुनिगायक।।
बात बिचारि कही सिगरी कुस।
दुःख कियो मन मैं कलि अंकुस।।287।।
रूपवती छंद
कीजै न विडंबन संतति सीते।
भावी न मिटै सु कहूँ जगगीते।।
तू तौ पतिदेव की गुरु, बेटी।
तेरी जग मृत्यु कहावति चेटी।।288।।
तोटक छंद
सिगरे रनमंडल माँझ गये।
अवलोकतहीं अति भीत भये।।
दुहुँ बालन को अति अद्भुत विक्रम।
अवलोकि भयो मुनि के मन संभ्रम।।289।।
सीता राम सम्मिलन
दंडक छंद
सोनित सलिल नर वानर सलिलचर,
गिरि बालिसुत विष बिभीषन डारे हैं।
चमर पताका गुड़ी बड़वा अनल सम,
रोगरिपु जामवंत केशव विचारे हैं।।
वाजि सुरवाजि सुरगज से अनेक गज,
भरत सबंधु इंदु अमृत निहारे हैं।
सोहत सहित शेष रामचंद्र कुश लव,
जाति कै समरसिंधु साँचे हूँ सुधारे हैं।।290।।
सीता- (दोहा) मनसा बाचा, कर्मणा, जो मेरे मन राम।
तौ सब सेना जी उठै, होहि घरी न विराम।।291।।
दोधक छंद
जीय उठी सब सेन सभागी।
केसव सोवत तैं जनु जागी।।
स्यौं सुत सीतहि लै सुखकारी।
राघव के मुनि पाँयन पारी।।292।।
मनोरमा छंद
सुभ सुंदरि सोदर पुत्र मिले जहँ।
वर्षा वर्षै सुर फुलन को तहँ।।
बहुधा दिवि दंदुभि के गन बाजत।
दिगपाल गयंदन के गन लाजत।।293।।
रूपमाला छंद
सुंदरी सुत लै सहोदर बाजि लै सुख पाइ।
साथ लै मुनि वालमीकिहि दीह दुःख नसाइ।
राम धाम चले मले यस लोकलोक बढ़ाइ।
भाँति भाँति सुदेस केसव दुंदुभीन बजाइ।।294।।