उदयपुर यात्रा / प्रेम प्रगास / धरनीदास
चौपाई:-
एकसौ बीस दीन अस चेरी। मगन होत नर जिन मुख हेरी॥
सब अमरन पाटंवर गाता। सेत नील पीयर अरु राता॥
हलका एक दियो यदुवंता। अति दीरघ तन चमकहिं दन्ता॥
लाल जडित अस कनक अभारी। जनु पर्वत वरियात सिधारी॥
तुरत सुरंग दियो सै चारी। कनक जीन वणि माणिक सारी॥
विश्राम:-
अति निशंक सागर तरहिं, भिजै न चारो पाव।
ते तुरंग कोतल सजे, कुंअर अगारु चलाव॥218॥
चौपाई:-
औ ऊंटनपर द्रव्य लदाऊ। धरनी देखत वरनि न आऊ॥
कत हीरा मुक्त मणि चूनी। जिनको मोल अपूरब सूनी॥
रखत बखत कत कहों वखानी। बहुत विछावन दिय सनमानी॥
सोन रूप कत वहलि वनाई। हीरा लाल जडो बहुताई॥
तिन जोते कत वृषभ अमोला। छुअत जाहिं क्षिति छांह न डोला॥
विश्राम:-
महथ पठाये वहुत कछु, अतना लिहु संग लाय।
धरनी वरनि सके नहीं, जो कछु दिया लुटाय॥219॥
चौपाई:-
पैदल सब आगे चलु झारी। वहुरि सुखासन राजकुमारी॥
तेहि पाछे जत वहल सवारी। तिन चढ़ि चले सकल नरनारी॥
तब पुनि ऊंट लदाय झारा। ढो लै चले रतन बहु भारा॥
तेहि पाछे चु सब गज राजा। महि दिग्गज लाजे जेहि लाजा॥
तेहि पाछे चलु वैल कि पांती। तुरग चले पुनि अगिनित भांति॥
विश्राम:-
तेहि पाछे कत कोतला, तब चलु नृपति कुमार।
पाछे चलु जत क्षत्रिया, क्षिति छाये असवार॥220॥
चौपाई:-
चलते पंथ वहुत दिन भयऊ। आधा पंथ उदयपुर गयऊ॥
पंखिहि कुअर कहा सुन भाई। राजा पंह अब कहिये जाई॥
ज्ञानमती विरतंत सुनाऊ। आग उदयपुर सबर पठाऊ॥
मनमोहन औ हम सब सेना। आवत सहित सकल सुख चैना॥
कर्त्ता करनहार जस होई। कैसहि मेटि सकै नहि कोई॥
विश्राम:-
तुम कंह काह सिखाइयो, तुम हो परम प्रवीन।
कहियो जो समुझी परै, हम तुम ज्यों जल मीन॥221॥