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उदास छाँव / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
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नीम पर बैठकर नहीं खुजलाता
कौआ अब अपनी पाँखें
उदास- उदास है अब
नीम तले की शीतल छाँव ।
पनघट पर आती
कोई राधा
अब न बतियाती
पनियारी हैं आँखें
अभिशप्त से हैं अधर
विधुर-सा लगता सारा गाँव।
सब अपने में खोए
मर भी जाए कोई
छुपकर निपट अकेला
हर अन्तस् रोए
चौपालों में छाया
श्मशानी सन्नाटा
लगता किसी तक्षक ने
चुपके से काटा,
ठिठक ठिठक जाते
चबूतरे पर चढ़ते पाँव ।
न जवानों की टोली
गाती कोई गीत
हुए यतीम अखाड़े
रेतीली दीवार- सी
ढह गई
आपस की प्रीत
गली- गली में घूमता
भूखे बाघ -सा अभाव ।