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उद्बोधन / निशांत-केतु / सुरेन्द्र ‘परिमल’

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कुहराम बीच मुनि आबै छै;
दोनों भायकें समझावै छै।

शुभ शांति भरल संबोधन सें;
गुरू ज्ञान पूर्ण उद्बोधन सें;
प्यार भरल अभिलाषा में;
अन्तः घनघोर निराशा में;

प्रतिरूप उसाँस भरै;
टुटलोॅ मन में विश्वास झरै।

-”ई अवसर नै रोवै-धोवै के
अवसर नै धीरज खोवै के।
समयानुकूल तों काम करोॅ
जन मानस में उत्साह भरोॅ।

‘”अन्त्येष्ठि कर्म के करना छौं
पितृण सें तोरा उवरना छौं।
उठि के तैयारी में लागोॅ
होय के सपूत तों नै भागोॅ।

-”छौं साथ सचिव सब श्रेष्ठ लोग
त्यागोॅ विषाद, ममता, वियोग।

-”कौशलाधीश कुल के केतु
धरती औं, स्वर्ग बीच सेतु।
सुयश प्रकाश झरै सगरोॅ
समता के हिम्मत छै केकरोॅ!

-”वेरा विबूढ़ बनै के नै;
अवसाद-पंथ चलै के नै।

-”मुरझैलोॅ जन-मानस के सूरज।
गंभीरमना रविकुल-धीरज।
वेदना त्याग, तों कर्म करोॅ
दृढ़ चरण चढ़ोॅ, हर रिक्तिभरोॅ।“

सरयू-तट होलोॅ दशगात्र विधान
नभ मुखर मंत्र, बहुत ज्ञान-दान।

आकाश शांत, धरती गुमसुम
नीरव निदाध, संसृति सुन-सुन।
गुरु-माथ पड़ल चिंता-रेखा,
कब कहलोॅ जाय विषम लेखा।

राजत्वभार दायित्वपूर्ण
रवि-कुल केतव केॅ गहना छै।
जन-जन के चेतना-सिंधु कें
सब में प्राण पलटना छै।

करना छै अभिषेक राष्ट्र के
मन के उजियाली सें;
गाना छै हर गीत नीति के
दिल के हरियाली सें।

हर आँसू में अपनोॅ आँसू
हर विकास में अपनॅ रूप।
मानव-श्रेष्ठ भरत राजाके
कहिया पड़तै उगलोॅ धूप

हर क्षण चिंता-मग्न रहै छै,
मुनि वशिष्ठ के छटपट प्राण;
हे जगती के कर्णधार! तों
कहिया देभोॅ हमरा त्राण!

सभा बोलैलोॅ गेलैॅ, ऋषि मुनि सब अैला।
साधक, श्रेष्ठ, गुणी जन सबसें सदन सुहैला।

सबकें असान, उचित, उचित सम्मान करी कें;
भरत बैठलोॅ भाव विनम्र सें, ध्यान धरी कें।

गुरू वशिष्ठ के धर्मवचन-
”गुण-शीलपूर्ण श्री राम-लखन।
सीता स्नेहमय उरपावन
कैकेई माता के युग-भावन।“

विलखै छै मुनि, भावी प्रबल जाल-
के सत्यरूप, के सके टाल!

-”हे प्राणवंत! संस्कृति-पुंज!
अन्तः शुद्धि के रूप व्यग्र!
उर के पावन दर्पण में
तोहरोॅ, विहँसै छै संसृति समग्र।

-”कौशलाधीश सब गुण पूरित
उनकोॅ चरित्र रश्मि-निर्मित।
हरि-हर-विधि सब गुण गावै छै,
अति सरल उदार बतावै छै।

-”उनकोॅ आदेश कृतार्थ करोॅ;
ई राजमुकुट तों शीश धरोॅ।

-”वेद प्रसिद्ध बात ई मानोॅ;
पितृ-वचन कें सुकृत जानौं।
राम-लखन-सीता मन मोहोॅ;
प्रजा-मध्य पंकज बन सोहोॅ।

-”पिता-वचन कें नै झुठलावोॅ
रघुकुल के सपूत कहलावोॅ।

कौशल्या सस्नेह समझावै-
”करौ काम, जे गुरू के भावै।
सचिव, प्रजा, पुरजन निरलम्ब छ;
सबके बस तोंही अवलम्ब छ।

-”हर्षित मन, सबके अभिनंदन;
सादर सनेहमय अभिवंदन।“

बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय
तब भरत धरलकोॅ महत दाय।

ताली पर ताली बाजै छै,
भीतर-बाहर सब गाजै छै।
धरती के भाग चमकलोॅ छै।
सुखलोॅ पर धार बरसलोॅ छै।