उधरहिं अंत न होइ निबाहू / हरिवंशराय बच्चन
अगर दुश्मन
खींचकर तलवार
करता वार
उससे नित्य प्रत्याशित यही हैए
चाहिए इसके लिए तैयार रहना;
यदि अपरिचित-अजनबी
कर खड्ग ले
आगे खड़ा हो जाए,
अचरज बड़ा होगा,
कम कठिन होगा नहीं उससे सँभालना;
किन्तु युग-युग मीत अपना,
जो कि भाई की दुहाई दे
दिशाएँ हो गुँजाता,
शीलवान जहान भर को हो जानता,
पीठ में सहसा छुरा यदि भोंकता,
परिताप से, विक्षोभ से, आक्रोश से,
आत्मा तड़पती,
नीति धुनती शीश
छाती पीट मर्यादा बिलखती,
विश्व मानस के लिए संभव न होता
इस तरह का पाशविक आघात सहना;
शाप इससे भी बड़ा है शत्रु का प्रच्छन्न रहना।
यह नहीं आघात, रावण का उघरना;
राम-रावण की कथा की
आज पुनरावृति हुई है।
हो दशानन कलियुगी,
त्रेतायुगी,
छल-छद्म ही आधार उसके-
बने भाई या भिखारी,
जिस किसी भी रूप में मारीच को ले साथ आए
कई उस मक्कार के हैं रूप दुनिया में बनाए।
आज रावण दक्षिणापथ नहीं,
उत्तर से उत्तर
हर ले गया है,
नहीं सीता, किन्तु शीता-
शीत हिममंडित
शिखर की रेख-माला से
सुरक्षित, शांत, निर्मल घाटियों को
स्तब्ध करके,
दग्ध करके,
उन्हें अपनी दानवी
गुरु गर्जना की बिजलियों से।
और इस सीता-हरण में,
नहीं केवल एक
समरोन्मुख सहस्त्रों लौह-काय जटायु
घायल मरे
अपने शौर्य-शोणित की कहानी
श्वेत हिमगिरि की
शिलाओं पर
अमिट
लिखते गए हैं।
इसलिए फिर आज
सूरज-चाँद
पृथ्वी, पवन को, आकाश को
साखी बताकर
तुम करो
संक्षिप्त
पर गंभीर, दृढ़
भीष्म-प्रतिज्ञा
देश जन-गण-मन समाए राम!-
अक्षत आन,
अक्षत प्राण,
अक्षत काय,
'जो मैं राम तो कुल सहित कहहिं दशानन आय!'