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उधर हैं आधियाँ इधर चिराग़ जलता है / डी. एम. मिश्र
Kavita Kosh से
उधर हैं आधियाँ इधर चिराग़ जलता है
वहीं है खार, वहीं फूल भी विहँसता है।
हवस के नाम पे क्या-क्या बटोरता इन्साँ
जो देखो पास से तो फिर ग़रीब रहता है।
कहूँ कैसे ये अहमियत नहीं है पैसे की
हरेक आदमी पैसे की बात करता है।
मेरा बेटा नयी तहजी़ब पढ़ के आया है
वो बुजुर्गो को पुराने ख़याल कहता है।