उनको मत दिल से कभी अपने लगाना, 
अच्छा रहता है सभी झगड़े भुलाना। 
टूटने लगता है सारा ताना-बाना, 
आँधियों में टिकता है कब शामियाना। 
एक दिन की बात हो तो चल भी जाये, 
रोज़ ही चलता नहीं लेकिन बहाना। 
हो भले ही कोई सूना-सूना आँगन, 
ढूँढ लेता है परिंदा दाना-दाना। 
कुछ न कुछ तो खूबियाँ होंगी कि अब भी, 
याद करते हैं सभी बीता ज़माना।
लेना तो आसान होता है किसी से,
दोस्त, मुश्किल होता है कर्ज़ा चुकाना।
`प्राण` इन्सां हो भले ही हो परिंदा,
हर किसी को प्यारा है अपना ठिकाना।