उनसे / रश्मि / महादेवी वर्मा
विहग-शावक से जिस दिन मूक,
पड़े थे स्वप्ननीड़ में प्राण;
अपरिचित थी विस्मृति की रात,
नहीं देखा था स्वर्णविहान।
रश्मि बन तुम आए चुपचाप,
सिखाने अपने मधुमय गान;
अचानक दीं वे पलकें खोल,
हृदय में बेध व्यथा का बान--
हुए फिर पल में अन्तर्धान!
रंग रही थी सपनों के चित्र,
हृदयकलिका मधु से सुकुमार;
अनिल बन सौ सौ बार दुलार,
तुम्हीं ने खुलवाये उर-द्वार।
--और फिर रहे न एक निमेष,
लुटा चुपके से सौरभ-भार;
रह गई पथ में बिछ कर दीन,
दृगों की अश्रुभरी मनुहार--
मूक प्राणों की विफल पुकार!
विश्ववीणा में कब से मूक,
पड़ा था मेरा जीवनतार;
न मुखरित कर पाईं झकझोर--
थक गईं सौ सौ मलयबयार।
तुम्हीं रचते अभिनव संगीत,
कभी मेरे गायक इस पार;
तुम्हीं ने कर निर्मम आघात
छेड़ दी यह बेसुध झंकार--
और उलझा डाले सब तार!