भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उनींदी भोर / कविता भट्ट
Kavita Kosh से
1
सुखद भोर
खग-गीत गूँजते
मुक्तछंद में।
2
प्राची के माथे
तप्त अधर रखे
प्रातःरवि ने ।
3
उनींदी भोर
मुक्त गुनगुनाती
प्रकृति रानी
4
निशा परास्त
पूर्वा की चुनरिया
रवि ने थामी ।
5
ओ ! तुम कौन
दिशाओं से गाते
संगीत -मौन
6
प्रणवाक्षर
ईश गीत, ईश भी
गुंजायमान
7
आज फिर से
कर्मयोगी सूरज
निर्लिप्त उगा
8
वीणा के तार
बरखा रानी छेड़े
धरा-शृंगार
9
धरा - कागद
प्रकृति कवयित्री
मुक्तक लिखे
10
बाट निहारे
प्रिय साँझ सवेरे
विषाद घेरे
11
मैं वियोगिनी
अनंत अनादि की
योगिनी हुई ।