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उन्नीस / प्रबोधिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'

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मैं किसे अपना कहूँ सच और किस-किस को पराया
लोग कहते हैं वहीं अपना जो दिल में हो समाया

मैं हृदय में एक सूरत को बिठाया
शीश पटका लाख मैं चन्दन चढ़ाया
मीत मैं तो मर गया बेमौत हीं
इस मरे इंसान से क्यों दिल लगाया

पूजते मिट्टी तो सोना बन गई होती
चूमते पत्ती खिलौना बन गई होती
प्यार देते धूल को तो धूल भी
जादू का टोन बन गई होती

कौन था वह आदमी! रहा रूठा, जिसे मैंने मनाया
हर बार मैं मर-मर जिया उसके लिए
हर बार मैं जी-जी मरा उसके लिए
हर बार मैं गर्दन को फाँसी पर चढ़ाया
बला से रह गया जिंदा तो मैं उसके लिए

पूजते पत्थर तो मिलते चैन दिल को
दिव्य होते मिल गए दो नैन दिल को
आदमी था हाय! पत्थर से भी बीता
चूर डाला मेरे दिल को

नमन कर-कर के हजारों बार मैं लहू बहाया लौट आया
मैं किसे अपना कहूँ सच और किस-किस को पराया