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उन को रोज़ एक ताज़ा हीला ख़ंजर चाहिए / 'वहीद' अख़्तर
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उन को रोज़ एक ताज़ा हीला ख़ंजर चाहिए
हम को रोज़ इक जाँ नई और इक नया सर चाहिए
इल्तिफ़ात ओ सरगिरानी पर ख़ुशी क्या रंज क्या
कुछ बहाना इस से बढ़ कर दीदा-ए-तर चाहिए
क्या दिखाएँ ख़ुश्क लब दो बूँद के साक़ी हैं सब
प्यास सहरा-ए-अज़ल उस को समंदर चाहिए
सच की इक नन्ही सी कोंपल को कुचलने के लिए
झूठ और दुश्नाम के लश्कर के लश्कर चाहिए
सब्र का दामान-ए-दौलत है अमीरों का अमीर
जब्र की दरयूज़्गी को सैंकड़ों दर चाहिए
बुत बनाने पूजने फिर तोड़ने के वास्ते
ख़ुद-परस्ती को नया हर रोज़ पत्थर चाहिए
हम ने जिस दुनिया को ठुकराया था उन के वास्ते
मिल गए वो तो उसी दुनिया का चक्कर चाहिए