उन दिनों : चार प्रेम कविताएँ / पवन करण
एक
दो साइकिलें साथ-साथ
घरों से निकलती थीं
दो रास्ते आगे
एक हो जाते थे
दो कुर्सियाँ हमेशा
सटकर बैठती थीं
दो प्यालियाँ अक्सर
बदल जाती थीं
उन दिनों
पास-पास लिखे जाते थे दो नाम
साथ-साथ लिए जाते थे दो नाम
दो
कुछ चुनी हुई क़िताबें थीं
अ जिन्हें पढ़ना चाहता था
कुछ ऐसे गीत थे अ जिन्हें
फ़ुर्सत में सुन लेता था
चित्रों के बारे में तब भी
अ को विशेष जानकारी न थी
एक खास रंग था अ जिस पर
अपनी जान छिड़कता था
मगर उन दिनों
इ जो भी पसंद करती थी
वह अ को भी पसंद आता था
तीन
सही समय पर वाचनालय
बंद होना खलता था
केंटीन का खचाखच
भर जाना अखरता था
मनपसंद जगह किसी का
बैठे मिलना चिढ़ाता था
सिनेमाघर में परिचित का
देख लेना डराता था
उन दिनों भाता नहीं था
छुट्टी का दिन, रविवार
कॉलेज खुलने का इतंज़ार
चार
घर के कानों में पहचान
चुगली टाँक जाती थी
एक नई कहानी रोज़ाना
बातचीत गढ़ लेती थी
आग लगाने में देरी
ज़रा भी नहीं हिचकती थी
अपने सिर पर आँगन
आसमान उठा लेता था
उन दिनों
काटने दौड़ते थे किवाड़
घूरते रहते थे रास्ते