उन सबके जोड़ में / गोविन्द कुमार 'गुंजन'
बहुत से लोग
शामिल नहीं थे मेरी जिंदगी में
मगर मेरी जिंदगी उन सबके जोड़ में थी
कोई भी आपस में जुड़ा हुआ न था
मगर गणित सिर्फ जोड़ न था
वह जारी रहा घटने से
वह जारी रहा विभाजन से
बीच में एक क्रास रखकर
बराबरी के निशान से बाहर
हम होते रहे दुगने, चौगुने
हम आदमी नहीं संख्या थे
हम आकड़े थे हिसाब किताब के
हम जिंदगी का बजट बनाते रहे
नफा और नुकसान होते रहे
सुबह हम सट्टे की पर्चियों पर थे
गरीब आदमी की उम्मीद बनकर
और शाम को सट्टा खुलते ही उसकी बर्बादी बन जाते थे
हम जिंदा थे ऊँचाईयों और नीचाईयों के मापदंड़ों में
हम रहते थे रूपयों और पैसों में
और सबकी कलाईयों पर बंधी घड़ियों में धड़कते थे
यह संख्या का खेल कितना खतरनाक था
और कितनी बड़ी दुर्घटना थी आदमी का संख्या हो जाना
राशन कार्ड पर हम सात थे
स्कूल में गये तो हम सत्तर थे एक कक्षा में
कारखानों में हम सैकडों थे
और प्रदेश में लाखों
धरती अपनी कक्षा में घूम रही थी
और हम अपनी अपनी धुरी से छितराए हुए
लुढ़क रहे थे
चलती हुई गाड़ी से निकल गए पहिए की तरह
वक्त कट रहा था
किसी पेड़ की तरह
एक एक कर गिर रही थी डालियाँ
अब पेड़ नहीं था
सिर्फ जड़ थी, तना था, डाली थी,
पत्ता था, फूल था, या सिर्फ फल था
पेड़ को तो इन सबका जोड़ होना था
मगर इस बात पर किसको रोना था
बहुत से लोग शामिल नहीं थे मेरी जिंदगी में
मगर मेरी जिंदगी सबके जोड़ में थी