उपवन का हर फूल शूल ही में खिलता है।
छूट गया है तट इसकी परवाह करो मत
हाथों की पतवार सँभालो, छूट न जाये;
तूफानों के वक्ष चीरते बढ़े चलो, हाँ
साँसों की शृंखला बीच में टूट न जाये।
बालू के पथ पर कब-कब नौका चलती है
पार धार में ही खेकर नाविक लगता है॥1॥
पर्वत के शिखरों पर बहने वाला निर्झर
बहते-बहते गिर पड़ता धरती के पथ पर;
पर विश्वास लिये अपने प्रवाह की गति में
चल देता है राह स्वयं अपनी निर्मित कर।
ठोकर खा गिर पड़ो भले, पर मत घबराओ
पथिक पंथ पर गिर कर ही आगे बढ़ता है॥2॥
मत समझो जगती के बन्धन औ’ सीमाएँ
बाधक बन कर आते हैं जग के जीवन में;
साधक का जो साध्य उसी की सिद्धि-हेतु ही
समझ रहा इनको सीधे प्रेरक साधन में।
गति अमंद, स्वच्छंद प्रकृति, पर सिंधु-मिलन हित
बंध कर सरित-प्रवाह, कूल ही में बहता है॥3॥
देख चुके हो तुम प्रभात की वह बेला भी
जिसने धरती पर स्वर्णिम प्रकाश बिखराया;
और आज यह देख रहे हो अमा निशा की
फैली है प्रत्येक दिशा में काली छाया।
किन्तु धरा का और गगन का दीपक हँस-हँस
अन्धकार की गहन शिला पर ही जलता है॥4॥