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उभयचर-13 / गीत चतुर्वेदी

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वह देखो बैठा है अतीत का थॉमस रो अतीत के जहांगीर के दरबार में बैठा हो जैसे आज का आज के दरबार में
कैसे आंखें फाड़े देखता है बादशाह के कमर में सोने का पट्टा है गले में क़ीमती मालाएं और बांह पर बंधा याक़ूत
जो मुर्गी़ के अंडे से भी बड़ा है जिसकी चमक के आगे ओटोमान का सुल्तान भी शरमा जाए
कैसे शरमा रहा है जहांगीर इस तरह पराये एक मर्द को देखते अपनी ओर आंखें फाड़े लालसा में
कितना अमीर है यह बादशाह ख़ुद बादशाह को बादशाह से नीचे कुछ मंज़ूर नहीं
और हैरत है कि जो बादशाह नहीं वह भी कभी रिआया नहीं बनना चाहता
तू भी बादशाह मैं भी बादशाह आह रे बादशाह तेरी धन्य है उदारता
जब वह दुआ करता है हम सबका विनोद होता है
देखिए न, सारे लोग आईना हो गए हैं जिसको देखता हूं ख़ुद मेरे जैसा पाता हूं
यह मेरा भ्रम नहीं होमोजेनाइज़ेशन है यह कॉन्स्टीपेशन का ग्लोबलाइज़ेशन है