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उभयचर-4 / गीत चतुर्वेदी

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बहुत टूटकर प्रेम किया था मैंने एक बार। बाहर आया प्रेम के दिनों से तो पाया मेरे सिवाय कुछ न टूटा था। ठीक ऐसा ही कहा था उसने जिससे मैंने प्रेम किया था। टूटना ही अंतिम सत्य है यह जीवन का फ़लसफ़ा रहा नहीं फिर भी टूटने के बाद हम दोनों ने ही प्रेम को क्यों बुहार फेंका? मेरे घर के पुराने एक संदूक़ में पुरानी एक बहुत माला था टूटी हुई धागे से अलग। नानी ने उसे क़रीने से संभाल रखा था। जब भी संदूक़ से वह कोई सामान निकालतीं, माला के कुछ दाने गिर पड़ते थे ज़मीन पर, किसी साड़ी दुपट्टे शॉल या पुराने काग़ज़ में अटके हुए। उन्हें बीनते हुए नानी याद करती थीं उस माला को जिसके टूटने की कहानी उन्होंने कभी नहीं बताई, लेकिन यह बताया बार-बार कई बार सैकड़ों बार कि अगली बार हाट से वह मोटा धागा ले आएंगी, फिर इस माला को उस नए धागे में पिरो देंगी। इस तरह, अपनी तरह, नकार देंगी कि टूटना ही अंतिम सत्य है। यह ज़बर्दस्ती की कल्पना ही होगी, नज़ाकत के स्वांग से भरपूर कि वह माला नानी के किसी प्रेम की टूटन रही होगी। उनके मरने के काफ़ी समय बाद हमें याद आई थी वह माला, जो संदूक़ में नहीं थी। कहीं भी नहीं थी ऐसा तो नहीं कह सकते क्योंकि हमारी स्मृतियों में तो थी ही, और नानी की भी मृत्योपरांत स्मृतियों में जो उनकी जल चुकी अस्थियों की बुझ चुकी राख में से झरती किसी डेल्टा प्रदेश में किसी पेड़ या फ़सल की जड़ में जल के तंतुओं से चिपकी होगी। उस दिन मुझे लगा था कि नानी ने वह धागा पा लिया होगा। न भी पाया तो क्या सारे दानों को साथ ले गईं होंगी और जो कहीं फिर से बिखर गए दाने, तो कहां-कहां बीनती फिरेंगी वह उन्हें? मैंने अपनी मालाओं के दाने कभी नहीं सहेजे, इसीलिए जो छिटके हुए दिखते हैं मुझको कपड़ों से आलमारी से किताबों के बीच बिखरते, मैं अक्सर ख़ुद से कहता हूं ये मेरी नानी की टूटी माला के दाने हैं