भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उमीदें जब भी दुनिया से लगाता है! / धीरज आमेटा ‘धीर’
Kavita Kosh से
उम्मीदें जब भी दुनिया से लगाता है,
दिल-ए-नादाँ फ़क़त धोखे ही खाता है!
ये दिल कम्बख्त जब रोने पर आता है,
ज़रा सी बात पर दरिया बहाता है!
जो पैरहन तले निश्तर छिपाता है,
लहू इक दिन वो अपना ही बहाता है!
वो बचपन में तुझे उंगली थमाता था,
जिसे तू आज बैसाखी थमाता है!
जुदा है क़ाफ़िले से रह्गुज़र जिस की,
वो ही इक दिन नया रस्ता दिखाता है!
तुम्हारा चूमना पेशानी को मेरी,
मिरे माथे की हर सलवट मिटाता है!