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उमीदों की बस्ती सजी, तुम न आये / रमेश 'कँवल'
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उम्मीदों की बस्ती सजी, तुम न आये
निगाहें रहीं ढूंढ़ती, तुम न आये
लिये साग़रो-मीना बैठे रहे हम
घटाओं में थी बरहमी1 तुम न आये
जवां हुस्नवालों के मेले लगे थे
तुम्हारी ही थी बस कमी, तुम न आये
जुदा करन पाती कभी हमको दुनिया
मगर हां तुम्हारी खुशी, तुम न आये
तुम आओगे इक दिन लिये साजे-इश्रत2
ये मौहूम3 उम्मीद थी, तुम न आये
हर इक गाम4 पर हंस रहे थे उजाले
मेरे दिल में थी तीरगी5 तुम न आये
वफ़ा से 'कंवल’ इक ज़माना था बरहम6
मगर आह क्या बात थी तुम न आये
1. रंजिश, अप्रसन्नता 2. सुखकाउपकरण 3. भ्रम-मूलक
4. रास्ता 5. अंधकार 6. कुपित-क्रुध