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उम्मीदें / सुनील कुमार शर्मा
Kavita Kosh से
शेष है अभी आशा,
बच्चों में बचपन शेष है
और इन्सानियत भी
इसलिए संघर्ष-नाद
होने दो,
प्रकाशन
में गूँजने दो
पतझड़ आता है यदि हर माह
तो आने दो,
पर सपनों को
आँखों में सजने दो
रेगिस्तान को भी
उपवन में बदलने दो।
करने दो बच्चों को नादानी,
चाँद से खेलने दो
सूरज को भी
मसलने दो मुट्ठी में
चूर करने दो
सितारों का अहंकार
सपने भी हक़ीकत हुए हैं पहले भी,
होंगे आगे भी॥