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उम्मीद की नदी / कविता भट्ट
Kavita Kosh से
क़ामयाबी भिखारन हुई; कि मुठ्ठियाँ भिंची हुई हैं।
खोजो न कोई हमदर्द, कि तलवारें खिंची हुई हैं।
हुनर सरेआम ठोकरें खाता यहाँ, फुटपाथ पर।
कौड़ियों का हुस्न हावी है, इश्को- जज़्बात पर।
महफिलें उठ चुकीं, पर्दा भी गिर गया साहब।
कौन किसकी बात कहे, जब है ज़ुबाँ गायब।
यह शहर हो चुका है- अंधा, गूँगा और बहरा।
मन के राग गाना जुर्म, सपनों पर घोर पहरा।
मगर उम्मीद वह नदी है, जो सागर तक जाएगी।
घने अँधियारे में भी, गरिमा सँवर कर दिखाएगी।