उम्मीद के उफ़ुक़ से न उट्ठा ग़ुबार तक / शान-उल-हक़ हक़्क़ी
उम्मीद के उफ़ुक़ से न उट्ठा ग़ुबार तक
देखी अगरचे राह-ए-ख़िज़ाँ से बहार तक
रखने को तेरे वादा-ए-ना-मो‘तबर की लाज
झेली है दिल ने ज़हमत-ए-सब्र-ओ-क़रार तक
देखा किस ने मुँह सहर-ए-जल्वा-साज़ का
सब वलवले हैं एक शब-ए-इंतिज़ार तक
सय्याद के सितम से रिहाई का ज़िक्र क्या
सौ दाम थे क़फ़स से सर-ए-शाख़-सार तक
मातम ये है कि ज़ौक़-ए-फुग़ाँ भी नहीं नसीब
बे-सोज़ हो गया नफ़स-ए-शोला-कार तक
जाती है दिल की हसरत-ए-नज़्ज़ारगी कहाँ
नज़ारा हो गया है निगाहों पे बार तक
क्या उस की शान-ए-बंदा-नवाज़ी का पूछना
बख़्शा है मुफ़लिसों को ग़म-ए-शाह-वार तक
फिर उस के बाद दिल में न उतरी कोई निगाह
वो तेज़ियाँ रहीं तिरे ख़्ंाजर की धार तक
‘हक़्क़ी’ से सरगिराँ ही सही नुक्ता-दान-ए-शेर
इक रंग है कि है कुछ इसी जान-ए-हार तक