भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उम्मीद / पवन चौहान

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चार दिवारी की सोच
दफन कर देती है
नया कर पाने की उम्मीद
कुंए के मेंढक की परछाई
घुमाती रहती है सुइयों को उन्ही
घिसी-पिटी राहों पर
उसी थकी-हारी चाल से
कदमों का वही सीमित सा सफर
पस्त कर देता है
पहाड़ पर चढ़ने का हौंसला
सुने सुनाए, रटे रटाए शब्दों की बोरियत
खीझाती रहती है कलम को भी
कानों में बजती एक ही धुन
चीरती है परदों को
बना देती है बहरा
सोच को मिलेगी परवाज़ कभी
उम्मीद है
कुंए का मेंढक फूदकेगा खूले आसमान तले
कदम मापेंगें नए, विस्तृत रास्ते
शब्द स्वतंत्र होंगे
और कानों में गुंजेगी
एक नयी, प्यारी
मीठी-सी धुन।