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उम्मीद / मनोज कुमार झा
Kavita Kosh से
कभी तो सोऊँ बच्चों को खेलाते-खेलाते सुलाकर
हो तो मेरे आगे नींद में बच्चों का छप-छप
कई दिन से सोच रहा कॉल करूँ कि यार
क्या तूने लगवा लिए वे दाँत जो अमरूद तोड़ने में
टूट गए थे
बहुत देर तब बजता रहा फोन
नहीं हुई हिम्मत कि जैसे छाती में नहीं कोई बात अब कहने की
कौन खोंट लेता है मन पर उगी हरी दूब
नोनही हुई जा रही पूरी की पूरी जमीन
यह कौन छुपा रहा है मेरी इच्छाओं में तीर
टिन के डब्बे हो जाएँगे एक दिन मेरे बच्चे!
क्या ऐसे ही ठुका रहूँगा दीवार में ताउम्र
फूटे घड़े की तरह कुएँ से बहुत दूर
नहीं, किसी दूरबीन के शीशे में घुल जाऊँगा
और कूद जाऊँगा चाँद के पार किसी नदी में।