उम्र का अस्ताचल / महेश सन्तोषी
हम उम्र के जिस अस्ताचल पर खड़े हैं,
उसके पीछे अलविदा है, आगे अंधेरे हैं,
इसके पहिले कि हम बाकी न बचें
तुम्हें देखने को, तुम्हें छूने को।
बहुत मन है एक बार तुम्हें
आँखों से देखने को, हाथों से छूने को।
यों तो तुम्हारे बिना ज़िन्दगी अब गुजर ही गयी
न तुम मेरे रास्तों में खड़े रहे,
न मैं तुम्हारे रास्ते में खड़ी रही।
प्रतीक्षा करने के कोई कारण नहीं बने,
तुम्हारे या मेरे लिए पर तुम्हारे नाम पर,
हमारी आँखों में नमी बराबर बनी रही,
एक दिन तुम्हें खोकर ऐसा लगा, जैसे अपना
आधा जीवन खो दिया हमने।
उस दिन हथेलियों से नहीं समेट सके,
हम तुम्हारी आँखों के पसीजते क्षितिज,
वक़्त ने बहुत सी इकट्ठी भाप दे दी तुम्हें,
एक स्थायी सावन दे दिया हमने।
फिर हमें तपती रही तुम्हारे प्राणों की भाप
तुम्हारी आँखों के सावन हमें याद आते रहे।
तुम्हारी हथेलियाँ वापस नहीं मिली
हमें छूने को,
अपनी ही हथेलियों से हम
अपने आँसू छिपाते रहे।
अलग-अलग होकर भी
एक-सी सम्वेदित रही
हमारी पछताती सांसें,
तुम्हारे गीतों के बे-मौसम पतझर
हमें हर मौसम में रुलाते रहे।
अगर मैं औरत नहीं होती
तो भूल जाती तुम्हारे मन की असीम निर्मलताएँ,
वह ओस से मन का अथाह प्यार
न कहीं तृप्ति की सीमाएँ
न कहीं प्यास की सीमाएँ।
अब, जब सिमिटने को हैं मेरे जीवन के क्षितिज
कहाँ खोजू मैं तुम्हें?
तुम्हारे वर्षों से सुलगते क्षितिज
कहाँ ले जाऊं मैं?
साथ में एक जिन्दा प्यार
मरा इतिहास, मरी आशाएँ।