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उम्र का खेल / मनमोहन
Kavita Kosh से
चेहरे पर उम्र की छाया उतरती है
और अचानक एक दिन आपके चेहरे से
पिता का चेहरा झाँकने लगता है
फिर भी एक और उम्र है
जो छूट गई है
और पीछे-पीछे चली आती है
और कभी-कभी प्रतिभासित होती है
जैसे न बोले गए शब्द
बोले गए अजीबो-गरीब शब्दों के साथ
अक्सर लिपटे हुए रहते हैं
जैसे बेटियों की हँसी में छिपे
किसी दिन छलक उठते हैं
माताओं के क्लेश
कौन जानता है
कि हमारे अचकचाए अधूरे स्पर्शों में
खो गए स्पर्शों की कितनी याद बची रहती है
और कितने जीवित सोए हुए स्पर्श
और इसी तरह
कभी कण्ठ में फँसी रह गई पुकार
अरसे बाद आँखों में दिखाई देती है ।