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उर-मृग! बँधता किस बन्धन में / अज्ञेय
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उर-मृग! बँधता किस बन्धन में!
थकित हुए स्वच्छन्द प्राण क्या भटक-भटक कर घन निर्जन में!
अर्ध-निमीलित हैं क्यों लोचन, स्थिर क्यों चपल पदों का स्पन्दन;
किस गुरु-भार दबा सुन्दर तन-किस आकर्षक सम्मोहन में?
जग की बिखरी गरिमा रोयी : तेरी अनुपम छवि क्यों खोयी?
निरुपम सखा न पाया कोई उस अबाध सुन्दर कानन में?
ओ चिर-बन्दी स्वतन्त्रता के, अति परिचय से ही उकता के,
स्वेच्छा ही से उसे लुटा के
उन्मुख किधर, विकल किस क्षण में!
उर-मृग! बँधता किस बन्धन में!
लाहौर, 1934