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उर में लगत न तरस प्रखर-सी / स्वामी सनातनदेव

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राग सोहनी, तीन ताल 24.7.1974

उरमें लगत न तरस प्रखर-सी।
विना तरस यह साध हिये की कैसे सजनी! सरसी<ref>पूरी होगी</ref>॥
जब लौं चित्त जात है इत-उत, तबलौं कैसी तरसी<ref>तरस</ref>।
तरस हुए तो असन-वसन हूँ की सुधि हियो विसरसी॥1॥
दिवस न भूख न नींद रैनमें, चैन न चित में पड़सी।
‘पिया-पिया’ ही की रट मन में, मुखसों ‘हाय’ उचरसी॥2॥
या बेचैनी-सों ही उरमें रस को झरनों झरसी।
तबहिं कबहुँ प्रीतम हूँ सजनी! कृपा-कोर कछु करसी॥3॥
प्रीतम की करुनासों जब सखि! नयनन को फल फलसी।
तब ही दरस-परस करि पिय के हिय की कलिका खिलसी॥4॥

शब्दार्थ
<references/>