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उलझनों को मैं / ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'
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उलझनों को मैं अगर न मानूँ तो
हथकड़ी को बंधन न मानूँ तो
दुश्मनी के जाल बुनने पर तुली दुनिया
दुश्मनों को मैं अगर दुश्मन न मानूँ तो
ज़िंदगी में धूप भी है, चाँदनी भी है
चाँदनी को रेशमी चन्दन न मानूँ तो
लोग कहते हैं मिलन है प्यार की मंज़िल
मैं मिलन को प्रीति का दर्पण न मानूँ तो
कह रहे मुझको ख़ुदा, कुछ गर्ज़ के मारे
मैं खुश़ामद को अगर वन्दन न मानूँ तो
मान लेता हूँ कि बाज़ी हार बैठा, पर
हार को मैं जीत का अर्पण न मानूँ तो
ठीक है ये दर्द तुमने ही दिया मुझको
पर तम्हें मैं दर्द का कारण न मानूँ तो
जिसने सागर मथ दिये, पर्वत हिला डाले
मैं उसी तूफ़ान को भीषण न मानूँ तो
दे रहे हो तुम खुले बाज़ार का नारा
मैं तुम्हारी बात जन-गण-मन न मानूँ तो