भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उलझनों में गुम हुआ फिरता है दर-दर आइना / वीनस केसरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उलझनों में गुम हुआ फिरता है दर-दर आइना।
झूठ को लेकिन दिखा सकता है ख़ंजर आइना।

शाम तक खुद को सलामत पा के अब हैरान है,
पत्थरों के शहर में घूमा था दिन भर आइना।

गमज़दा हैं, खौफ़ में हैं, हुस्न की सब देवियाँ,
कौन पागल बाँट आया है ये घर-घर आइना।

आइनों ने खुदकुशी कर ली ये चर्चा आम है,
जब ये जाना था की बन बैठे हैं पत्थर, आइना।

मैंने पल भर झूठ-सच पर तब्सिरा क्या कर दिया,
रख गए हैं लोग मेरे घर के बाहर आइना।

अपना अपना हौसला है, अपना अपना फ़ैसला,
कोई पत्थर बन के खुश है कोई बन कर आइना।