उलझे प्रश्न / शिवदेव शर्मा 'पथिक'
दीप भी जलता है चुपचाप, पतंगे भी जलते हैं मौन!
किंतु यह माटी का संसार, चीखता फिर क्यों दोषी कौन!
ज्ञान का यह कैसा उपयोग, नाश का भी विज्ञान प्रयोग!
कली खिलती भौरें मिलते, कली को भौरें की पहचान!
लूट उनके सौ-सौ मधुकोष, उन्हें निठुर कहता इंसान!
पिघलती करुणा बनकर मोम, पतंगे हो जाते हैं होम!
धरा पर आता नया बसंत, नाचती कोयल भरती कूक!
सजग पंचम स्वर पर उल्लास, कहे जग उसको हिय की हूक!
कि मधुऋतु गाता इतराता, जमाना रोता रह जाता!
सजाती मीरा मन का प्यार, थिरकता लहरों पर घनश्याम!
सेज पर कलियाँ क्यों बिछतीं, सड़क का मजनू क्यों बदनाम!
प्रणय का यह निर्मम उपहास, दोष का लम्बा है इतिहास!
घिरी हो सावन की बरसात, गगन से टूट पड़े अंगार!
चातकी मिलने को आतुर, उसे भोली कहता संसार!
प्यार की परिभाषा क्या है, अनय की अभिलाषा क्या है!
प्यार की परिभाषा के लिए, बताओगे तुम शायद ताज!
अभी तक जीवित राधा है, मरी सोई लेकिन मुमताज!
कहाँ लैला का खड़ा मजार, कहाँ फिर सोई आज अनार!
ईसा को सूली जग देता, गरल का प्याला मीरा को!
गोलियाँ गाँधी खाता है, कौन सहलाए पीड़ा को!
हँसी होठों पर निखरी है, लाज पानी में बिखरा है!
महल ऊँचे सपनों के जोड़, थके श्रम से हो चकनाचूर!
बसाते रेतों पर धनखेत, उन्हें दुनिया कहती मजदूर!
जवानी का लगता है मोल, न्याय यह कैसा मानव बोल!
उलझते जाते कवि के प्रश्न, और मन कहता लो विश्राम!
भला इंसानों की क्या बात, लगे भगवानों के भी दाम!
धर्म पर धरती कैसे टिकी, अर्थ पर कविता कैसे बिकी!